चुनाव मतलब "धन और बल"
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हमारे चुनावी व्यवस्था में बड़े सुधारों की जरूरत है, क्योंकि यह धनी और शक्तिशाली लोगों का खेल बनती जा रही है। आज देश की सियासत भ्रष्टाचार,अपराध और हिंसा से लबालब है। चुनाव में धनबल, बाहुबल और अपराधी तत्वों का बोलबाला है, जो हमारे लोकतंत्र को खोखला कर रहा है। पहले नेताओं और अपराधियों की सांठगांठ होती थी और उनका इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन अब खुद अपराधी राजनीति में आने लगे हैं। लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां ऐसे लोगों को शह देती हैं जिन पर हत्या, बलात्कार से लेकर दंगे भड़काने के गंभीर मामले दर्ज हैं।दरअसल, आज व्यवाहरिक राजनीति में किसी भी पार्टी का टिकट पाने के लिए “धन” और “बल” और किसी भी तरीके से चुनाव जीतने की क्षमता ही पहला और अंतिम पैमाना माना जाने लगा है। कहां हमारे संविधान निर्माता यह उम्मीद कर रहे थे कि धीरे-धीरे जब आधुनिक व्यवस्थाएं और इसके मूल्य अपनी जड़ें जमा लेंगी तो धर्म,जाति, भाषा, क्षेत्र का सवाल उतना हावी नहीं रह जाएगा, लेकिन आज इनके बिना राजनीति की कल्पना ही नही की जा सकती है आज राजनीति में धर्म व जाति अधिक सशक्त विभाजक ताकत के रूप में स्थापित हो चुके हैं।वर्ष 2006 में चुनाव आयोग ने तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक कड़ा पत्र लिखते हुए कहा था कि ‘यदि जनप्रतिनिधित्व कानून 1951” में जरूरी बदलाव नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब देश की संसद और विधानसभाओं में दाऊद इब्राहीम और अबू सलेम जैसे लोग बैठेंगे’। लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और अंत में सुप्रीमकोर्ट को ही पहल करनी पड़ी।
दरअसल ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951’ की धारा 8 (4) के अनुसार अगर कोई भी जनप्रतिनिधि किसी मामले में दोषी ठहराये जाने की तिथि से तीन महीने के दौरान तक अपील दायर कर देता है, तो उस मामले का निबटारा होने तक वह अपने पद के अयोग्य घोषित नहीं होगा। यही वह धारा है जिसका हमारे सियासतदानों द्वारा लम्बे समय तक फायदा उठाया जाता रहा है, इसलिए जब 2013 सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की यह धारा संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समानता के अधिकार पर खरी नहीं उतरती’ तो इससे देश के पूरे सियासी बिरादरी में खलबली मच गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद लगभग सभी दलों द्वारा ना केवल आलोचना की गयी बल्कि सुप्रीम कोर्ट को अपने हद में रहने की नसीहत भी दे डाली गई।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला हमारे लोकतन्त्र के हित में है और यह सजायाफ्ता नेताओं के चुनाव में भाग लेने पर अंकुश लगाता है। लालू प्रसाद यादव व रशीद मसूद जैसे नेता कोर्ट के इसी फैसले की वजह से ही चुनाव में सीधे तौर पर भाग ना लेने को मजबूर हुए, लेकिन हमारे राजनीतिक दल इस फैसले को बेअसर करने के जतन ही करते रहे, तभी तो यूपीए सरकार द्वारा अध्यादेश जारी करके इस निर्णय को रद्द करने की कोशिश की गई।
इस विवादित अध्यादेश में प्रावधान किया गया था कि सजायाफ्ता सांसद व विधायक न केवल विधानसभा व संसद के सदस्य बने रह सकेंगें बल्कि चुनाव भी लड़ सकेंगे हालांकि दोषमुक्त होने तक उनके संसद-विधानसभा में मत देने का अधिकार और वेतन भत्ते पर रोक थी, बाद में राहुल गांधी द्वारा “बकवास”, “फाड़ कर फेंक दिए जाने लायक” बताए जाने के बाद तत्कालीन मनमोहन सरकार ने इस अध्यादेश को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया।
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ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीमकोर्ट के 2013 के फैसले के बावजूद इससे बचने रास्ता निकाल लिया गया है चूंकि अयोग्य ठहराये जाने के लिए पहले संबंधित सदन के सचिवालय से अधिसूचना जारी कर चुनाव आयोग के पास भेजी जाती है और इसके बाद चुनाव आयोग सदस्य को अयोग्य ठहराने की अधिसूचना कर उस सीट को रिक्त घोषित करता है, लेकिन इस मामले में याचिका लगाने वाले गैर सरकारी संगठन “लोक प्रहरी” का आरोप है कि अयोग्य ठहरा कर सदस्यता रद्द करने की सूचना जारी करने में संबंधित सदन का सचिवालय देरी करता है, जिसकी वजह से कारवाई नहीं हो पाती है।
अब जुलाई 2016 में ‘लोक प्रहरी’ की याचिका पर सुप्रीमकोर्ट ने जिस तरह से कड़ा रुख अपनाया है, उससे इस मामले ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगा है कि कोर्ट के फैसले के तीन वर्ष बाद भी कानून को लागू करने के लिए कदम क्यों नहीं उठाया गया। कोर्ट ने चुनाव आयोग से यह भी पूछा है कि क्यों न दोषी ठहराये जाते ही सदस्य आटोमेटिक अयोग्य करार दिया जाए और क्या सदस्य की सदस्यता रद करने के लिए नयी अधिसूचना जारी करने की जरूरत है?
लोकतंत्र क्या था और आज क्या है https://youtu.be/sI7Rt2mpOcA
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